


आदि काल में हमारे पूर्वजों ने हमारी वैश्य उपजाति को चौसेनी वैश्य नाम से पहचान दी तथा हमारी वैश्य उपजाति को सभी समुदायों में चौसेनी वैश्य नाम से जाना जाता है।
चौसेनी वैश्य, वैश्य समाज की एक प्रख्यात प्रमुख वैश्य उप जाति है। ऐसा माना जाता है कि हमारी चौसेनी वैश्य उपजाति चार श्रेणियों गौपालक, कृषक, व्यवसायी (क्रेता-विक्रेता) एवम् वैद्यक (चिकित्सक) के योग से बनी है। सम्भवत: श्रेणी बल बढ़ाने तथा व्यवसायिक सुविधा प्राप्त करने के लिए चारों श्रेणियाँ संयुक्त हो गयी और कालान्तर में उन्होंने चौसेनी नाम की वैश्य उपजाति का रूप ग्रहण कर लिया।
चौसेन वैश्य भृगुनन्दन महर्षि च्यवन को अपना आदि पिता व आराध्य देव मानते है। इस तथ्य को मानने की परिपुष्टि इस आधार पर हे। श्रेणी शासन काल में कृषक, गौपालक, वणिक तथा वैद्यकर्मी च्यवन वंशजों ने मिल कर एक प्रथम श्रेणी बना ली जो चौसेनी वैश्यों के नाम से आज तक अपना असततित्व बनाये हुए है और महर्षि च्यवन को अपना आदि पिता व आराध्य देव माना जो तर्क संगत है।
यजुर्वेद, ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में वैश्य वर्ण के निर्माण की चर्चा की गई है। उरू तदस्य यदवैश्य (ऋग्वेद) एवम् यजुर्वेद में बताया गया है कि वैश्य जाति ब्रह्मा की जंघा से उत्पन्न हुई है तथा अथर्वेद में इसे मध्य स्तदस्य यद् वैश्य बताया गया है
वैदिक साहित्य में वैश्यों के लिए औरव्य अरूज, अर्य (व्यापारी)चौसन भूमि स्प्रक, विद, ट्विज, भूमि जीवी, व्यवहर्त्ता, वार्तिक (व्यवसायी, कृषक, वैद्य) श्रेष्ठी, अर्थवाह, वणिक व पणि आदि नामों का प्रयोग किया गया है।
चौसन और्व का साहित्यक अर्थ है- भूमि से सम्बन्ध रखने वाला। संस्कृत के तत्सम और्व शब्द की व्युतपत्ति के अनुसार भी वैश्य और्व अथवा और्व चौसन वंशज हैं क्योंकि वैदिक काल से ही इनका सम्बंध भूमि कर्षण द्वारा अन्न उत्पन्न करना और समाज के भरण पोषण का प्रबन्ध करना था। इसलिए समस्त वैश्य चौसन और्व वंशज अथवा आर्व थे।
च्यवन ऋषि महान भूगु ऋषि एवम् माता पुलोमा के पुत्र थे। ऋषि च्यवन को महान ऋषियों की श्रेणी में माना जाता है। इनेक विचारों एवम् सिद्धांतों द्वारा ज्योतिष मं अनेक महत्वपूर्ण बातों का आगमन हुआ। इस कारण च्यवन ऋषि ज्योतिष गुरू के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थों से ज्योतिष तथा जीवन के सही मार्ग दर्शन का बोध होता है।
पुराणों में महर्षि च्यवन का जन्म कौतूहलों से भरा दर्शाया है। महर्षि च्यवन, महर्षि भूगु और पुलोमा के पुत्र थे. माता पुलोमा के अनुपम सौंदर्य पर आसक्त हो उनके विवाह के पूर्व ही पुलोम नामक राक्षस उनका अपहरण करना चाहता था. वह कई बार प्रयत्त करके असफल रहा. माता पुलोमा एवमृ महर्षि भूगु के विवाह के बाद एक दिन भृगु महर्षि को आश्रम में न पाकर राक्षस पुलोम ने भूगु पत्ती का अपहरण करना चाहा. उस समय अग्निदेव भूगु ऋषि के आदेश से माता पुलोमा की रक्षा करने के उद्देश्य से आश्रम का पहरा दे रहे थे. राक्षस पुलोम ने अग्नि देव के समीप जाकर पूछा कि महाराज यह बताईये कि क्या महर्षि भूगु और पुलोमा का विवाह वेद विधि और शास्त्रोंक्त पद्धिति से सम्पन्न हुआ है. अग्निदेव ने उत्तर दिया कि नहीं, मैं कभी असत्य वचन नहीं कह सकता. इस पर राक्षस, पुलोमा सूअर पर रूप धारण कर भृगु पत्नी पुलोमा को उठा ले गया. उस समय भृगु पत्नी पुलोमा गर्भवती थी. मार्ग के मध्य में ही माता पुलोमा का अर्ध प्रसव हुआ और शिशु, पुलोमा के गर्भ से च्युत हो कर जमीन पर गिर पड़ा. इसलिए गर्भ च्युत होने के कारण वह च्यवन नाम से प्रसिद्ध हुआ. शिशु के जन्म के समय जो तेज प्रकट हुआ, उसके ताप से राक्षस पुलोम जलकर भस्म हो गया.
सुंदर कटि प्रदेश वाली माता पुलोमा दुख से मूच्छित हो गई और किसी तरह संभलकर भूगुकल को आनन्दित करने वाले अपने पुत्र भार्गव च्यवन क गोद में लेकर ब्रह्मा जी के पास चली गई। ब्रह्मा जी ने भूगु की पतिब्रता पत्नी को रोती और नेत्रों से आँसू बहाते देखा तथा पुत्रवधु पुलोमा को सान्त्वना दी तथा धीरज बधाया। अन्ततः माता पुलोमा विलाप करते हुए तेजस्वी भूगुनदन च्यवन को लेकर भूगु आश्रम लौटकर आ गईं। तपस्वी भृगु ने माता पुलोमा से पूछा कि तुम्हें हर लेने की इच्छा से आये राक्षस को किसने तुम्हारा परिचय दिया। माता पुलोमा ने कहा अग्निदेव ने मेरा परिचय दिया तब वह राक्षस मुझे उठा ले गया। आपके इस तेजस्वी पुत्र च्यवन के तेज से, मैं उस राक्षस के चंगल से छूट सकी। पुत्र च्यवन के तेज के कारण राक्षस मुझे छोड़ कर गिर गया और जलकर भस्म हो गया। यह सुन कर तपस्वी भूगु ने अग्निदेव को शाप दिया कि तुम सर्वभक्षी हो जाओ। इस प्रकार भृगु पुत्र प्रतापी, तेजस्वी च्यवन का जन्म हुआ।
च्यवन ऋषि के जीवन में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ जुड़ी हुई हैं, जिनमें से मुख्य घटनाएँ इस प्रकार हैं:
१) च्यवन और सुकन्या का विवाह
बचपन से ही बालक च्यवन, विद्वान, ज्ञानी तथा भक्तिभाव में लीन रहते थे। उन्होंने सोचा कि तपस्या करके कोई महान कार्य करना चाहिए। इस विचार से उन्होंने निश्वल भाव से, अन्न जल त्यागकर तप करना आरम्भ कर दिया। तप आरम्भ करने पर सालों-साल तप में लीन रहने पर परिणाम स्वरूप कालान्तर में उनके शरीर के चारों तरफ बाम्बिया निकल आई, बाम्बियों के कोटरों में पक्षियों, चीटी व दीमन ने घोंसले बना लिए। प्राचीन काल की बात है उस समय भारत में राजा शर्याति का शासन था। वे अत्यन्त न्यायप्रिय, प्रजासेवक एवम् कुशल प्रशासक थे। सद्गुणों का प्रभाव राजा की कमल नयनी सुन्दर पुत्री एवम् पुत्रों पर भी पड़ा उनके पुत्र व पुत्री उनके पद चिन्हों पर चल रहे थे। राजा शर्याति अपनी सर्वगुण सम्पन्न सन्तानों को देखकर स्वयं बहुत प्रसन्न रहा करते थे। उचित समय देखकर एक दिन शर्याति अपने पुत्रों तथा कमल नयनी सुन्दर पुत्री व उस की सहेलियों सहित वन विहार के लिए निकले। बन में भ्रमण करते हुए उस वन में पहुँचे जहाँ ऋषिवर च्यवन का आश्रम अवस्थित था। राजा शर्याति और उनकी धर्मपत्नी एक सरोवर के निकट विश्राम के लिए रूक गये। लेकिन अपनी सखियों के साथ सुकन्या बन में यत्र तत्र विचरने लगी। वृक्षों, लताओं तथा पुष्पों की बहार उनको लुभा रही थी। अक्समात एक स्थान पर सुकन्या ने एक मिट्टी के टीले पर बाम्बी से जुगनुओं की भाँति चमकते हुए दो मणियाँ देखी। वह कोतुहल से भर उठी तथा उन मणियों के निकट आयी। नजदीक देखने पर भी चमकती वस्तु को समझ न पाई। कौतुहल वश तब उसने सूखी लकड़ी की सहायता से दोनों चमकदार मणियों को निकालने का यत्न किया परन्तु मणि नहीं
निकली, अपितु वहाँ से खून बहने लगा। मणि से खून टपकते देख सुकन्या व सखियों सहित भय से पीली पड़ गई और भय से काँपती हुई अपने डेरे में आ गई। तक्षण ही
राजा के साथ आये हुए सैनिकों और कर्मचारियों का बुरा हाल हो गया, उनका मलमूत्र बन्द हो गया। इस अनहोनी घटना पर राजा शर्याति को बड़ा आश्चर्य हुआ और बोले अरे तुम लोगों ने भार्गव च्यवन के प्रति कोई दुरव्यवहार तो नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि हममें से किसी के द्वारा कोई अनर्थ अवश्य हुआ है। अपने पिता की वाणी सुनकर सुकन्या ने डरते डरते पिता से कहा कि मुझसे अनजाने में अपराध अवश्य हुआ है। मैंने अनजाने में मिट्टी के टीले से दो मणियों को निकालने की कोशिश की जिस कारण से दो मणिरूपी ज्योतियों को जा काटे से छेद दिया और दोनों ज्योतियों से रक्त बहने लगा तब हम सभी घबरा गए तथा अपने डेरे में वापसआ गए।
अपनी प्रिय पुत्री की बात सुनकर राजा शर्याति घबरा गये। वह तुरंत सुकन्या को लेकर उस स्थान पर पहुँचे और देखते हुए दुःखी मन से बोले-बेटी तुमने बहुत बड़ा पाप कर डाला। यह च्यवन ऋषि है। जिनकी तुमने आँख फोड़ दी है। सुनते ही सुकन्या रो पड़ी और टूटते हुए स्वर में कहा - मेरी जानकारी में नहीं था कि यहाँ महर्षि च्यवन बैठे हुए है। मैंने बड़ा अनर्थ कर डाला। यह कह कर सुकन्या फूट फूट कर रो पड़ी। हाँ पुत्री तुमसे अपराध हो गया है महर्षि च्यवन यहाँ पर तपस्या कर रहे थे। आंधी तूफान और वर्षा के कारण इनके चारों तरफ मिट्टी का टीला बन गया है। इसी कारण तुम्हारी दृष्टि को दोष हो गया। मात्र दो आँखें मणियों के रूप में दिखाई दी। राजा और सुकन्या आपस में बात ही कर रहे थे तभी महर्षि च्यवन के कराहने का स्वर सुनाई दिया।
महर्षि च्यवन के कातर स्वय सुनकर सुकन्या ने तय किया कि-मैं इस पाप का प्रायश्चित करके इस हानि की क्षति पूर्ति करूँगी। राजा शर्याति ने कहा तुम्हारे प्रायश्चित से महर्षि च्यवन की आँखें तो वापिस नहीं आयेगी। सुकन्या ने कहा - मैं इनकी आँखें बनूँगी। राजा अचम्भित होकर कहने लगे बेटी यह क्या कह रही हो।
सुकन्या बोली मैं उचित कर रही हूँ पिता जी। मैं ऋषिदेव की आँखें बनूँगी। मैं मात्र भूल व क्षमा का बहाना बनाकर अपराध मुक्त नहीं होना चाहती। न्याय नीति के समान अधिकार को स्वीकार कर चलने में ही मेरा व विश्व का कल्याण है। मैंने आप से यही सब तो सीखा है। मैं महर्षि च्यवन से विवाह करूँगी और अपने जीवन पर्यन्त उनकी आँख बन कर सेवा करूँगी। लेकिन बेटी यह तो अत्यन्त जर्जर कृशकाय शरीर के है और तू युवा। सुकन्या बोली - यहाँ पात्रता और योग्यता का प्रश्न नहीं है। मुझे तो सहर्ष प्रायश्चित करना है। मैं इस कार्य को धर्म समझकर तपस्या के माध्यम से आनन्दपूर्वक पूर्ण करके रहूँगी। मुझे अपना आर्शीवाद प्रदान करे। सुकन्या के दृढ़ निश्चय को देखते हुए राजा शर्याति तुरन्त सुकन्या को साथ लेकर ऋषिवर के पास आये। उनकी स्तुति की तथा हाथ जोड़ पैरों में 'पड़कर क्षमा माँगी। राजा शर्याति व सुकन्या की स्तुति से ऋषिवर प्रसन्न हुए। तदउपरान्त राजा ने अपनी कन्या को सेवार्थ अर्पण करने का प्रस्ताव किया। ऋषिवर ने राजा के अनुग्रह को स्वीकार कर सुकन्या को भार्या के रूप में अगींकार किया। उसी क्षण राजा की सेना व कर्मचारियों का कष्ट दूर हो गया। इस प्रकार महर्षि च्यवन व सुकन्या का विवाह सम्पन्न हुआ। बार-बार क्षमा याचना कर तथा ऋषिवर की अनुमति लेकर राजा अपनी राजधानी को लौट गये
च्यवन बड़े क्रोधी स्वभाव के थे। सुकन्या का उन्हीं से पाला पड़ा था। वह भी घोर अपराध करने के बाद वह निष्ठावान पत्नी की भाँति अपने पतिदेव की तन मन से सेवा करने लगीं। ऋषिवर की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति में वह हरदम तत्पर रहने लगी। पतिब्रता धर्म का पालन करते हुए अपनी निस्वार्थ सेवा में सुकन्या ने ऋषिवर को प्रसन्न कर लिया तथा दोनों तप करते हुए सुखी जीवन व्यतीत करने लगे।